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उतर गया तम-सर्प का, चढ़ा सभी विष तंत्र ।
दीप-गारुड़िक ने पढ़ा, जब प्रकाश का मंत्र ।।
जगमग-जगमग ज्योति लख, गया सकल सन्ताप ।
सत्य - राम के हाथ से, मिटा झूठ का पाप ।।
टुकड़ा-टुकड़ा हो गया, खिंच कर अमित लकीर ।
तम-पाहन के उर लगा, जब प्रकाश का तीर ।।
भीतर - बाहर नाचते, अंधियारे के प्रेत ।
आओ, माटी का दिया, बनें जलें समवेत ।।
तन-दीपक में भर धरो, मधुर-मधुर सुस्नेह ।
बने साधना-वर्तिका हो पावन मन - गेह ।।
प्रबल निशा तम गहन है, गरजे तम घनघोर ।
द्वार -द्वार दीपक धरो, जब तक आवे भोर ।।
अन्धकार है असत यह, सत है ज्योति अमंद।
जब जब जीते असत, हों प्रकट सच्चिदानंद ।।
तन-मन पुलकित हो गया, हृदय हुआ निष्काम ।
तम का रावण मारकर, घर लौटे श्री राम ।।
कट जाएगा, यदि रखो, दीपक पर विश्वास ।
चाहे जितना हो सघन, अन्धकार का पाश ।।
चाहे जितना हो सघन, भीषण और बिकराल ।
दीपक के हाथों लिखा, अन्धकार का काल ।।
- यायावर
१ नवंबर २०१८ |