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दीप मेरे
निर्निमेष जल
सहज कम्प भर
महानिशा का ले तम हर
द्वार द्वार पर तू सज मनहर
महल या कि झोपड़ी शिखर
ज्योतित कर तू सहज प्रेम भर
जग के लघु ठौर का कण कण
दीप मेरे
जल उदार मन
मन का रावण विजित हो रहा
खिल रहा अध्यात्म प्रकाश
अर्धचेतन ,अंधचेतन
मन सुषुप्ति का अँधप्रहर
ज्ञान ज्योति से जाग्रत कर
अवलि अवलि हो सुघड़ सुरूप तन
दीप मेरे
जल सघन सघन
हर मन के दीपक तू जल
हो प्रकाशित व्रह्म विश्व तन
नहीं रहे अज्ञात कुछ भी
खुल जाएँ सब बन्ध आवरण
दिखें हृदय के मृदु भाव तब
छिन्न कटुता गहन तार तम
जल अचंचल
चिर प्रकाशयुत
दीप मेरे
जल अकंपित।
- आशा सहाय
१ नवंबर २०१८ |