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आओ, साधो
सबसे पहले
अपने भीतर दीप जलाएँ
जगमग होवे देह-देहरी -
दूजा दीया रखें वहीं पर
लछमी मइया मन में व्यापें
हो जावें साँसें पूजाघर
गणपति देवा रहें
दाहिने सबके
आओ, सगुन मनाएँ
उनके घर में जोत बिखेरें
जिन्हें मिले केवल अँधियारे
कभी न बुझने पाये
ऐसा दीप धरें जन-मन के द्वारे
सारे दीयों की
बाती में
आओ, अपना नेह बसाएँ
इससे उबरें -
यह जो हाट-लाट की माया
'जात एक मानुष की' मानें
जानें कोई नहीं पराया
संग आरती
औ' अज़ान हों -
उसी घाट पर दीप सिराएँ
पलकों में आकाश भरे हम
आँखों में करुणा का पानी
मन का आपा सब खो जाये
बोलें ऐसी मीठी बानी
'सर्वेभवन्तिसुखिनः'
की हम
आओ, मंगलध्वनि हो जाएँ
- कुमार रवीन्द्र
१ अक्तूबर २०१७ |