हर हथेली
आज बन दीपक चले तो हो उजाला
यह अँधेरा अब सपन की बाँसुरी
सुनता नहीं है
आज तम के इस नगर में
आँख अंधी हो गयी है
पाँख टूटी है सुमन की
बुद्धि बंदी हो गयी है
हर नगर
हर एक द्वारे अब इसी ने जाल डाला
इसलिये ही यह समय अब रागिनी
बुनता नहीं है
आज सत्ता के शहर में
बस मुखौटे दीखते हैं
आम जन अपनी व्यथा में
आप में ही भीगते हैं
रार कैसी
हो गयी है
कर ये
किसने हाल डाला
पीर जन की है पराई राज अब
गुनता नहीं है
- गीता पंडित
१ अक्तूबर २०१७ |