अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

दीप-पर्व

   



 

दीप जलाकर
खील बताशों से पूजा-मंचन
शेष वर्ष सब चाल तान
ढर्रे पर चलती हैं

ढर्रे पर चलना
कुछ को है नियति, कहीं सुविधा
दीप-यज्ञ में
कुछ केवल घी-बाती-सी समिधा
किस वेदी पर
किस किसकी आहुतियाँ दे होता
देख-देख कुछ रूहें
जमतीं और पिघलती हैं

लौ से लौ का बिम्ब
मंत्र का पाठ प्रतीक हुए
सब कुछ खोता चकाचौंध में
हँसते अन्धकुएँ
बाजारों की छद्म अदाएँ
सत, रज, तम धारें
दालें सबकी सहज भाव से
इस दिन गलती हैं

जगा रहे अपने कबीर को
हम चुपके- चुपके
आँख गडाये शाम दाम भी
खड़े हुए चिपके
सोच रहे हम भीड़ किसी दिन
आदम हो जाए
साँसें उस पल को
कपूर-गंधों में ढलती हैं

दीप जलाना संस्कृति अपनी
परम्परा उजली
अपने ऊँचे पायदान से
कब कैसे फिसली
डूबें, खोजें उन लम्हों को
इसको स्वस्थ करें
किसी सीप में ये आशाएँ
उगतीं, पलती हैं

दीये में लौ नहीं
अनेकों छवियाँ बलती हैं

- वेद प्रकाश शर्मा वेद
१५ अक्तूबर २०१६

   

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter