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मन आलोकित

   



 

दीप-पर्व पर दीप जले हैं
मन आलोकित भीतर तक

घोर-तिमिर की सत्ता पलटी
कलुष-बैर का राज भगा
अब प्रकाश भर देगा खुशियाँ
जन-जन में विश्वास जगा

एकरूप हो जाए ज्योत्स्ना
महलों से माटी घर तक

नहीं राम बन सकते तो भी
मानव तो बन सकते हैं
अंतस्तल में दीप जलाएँ
इतना तो कर सकते हैं

शुभ-संकल्प समाहित हों अब
बाहर से अभ्यन्तर तक

प्रेम-पुंज से पूरित जग हो
दीपक बन जलना होगा
शुभग-ज्योति विस्तारित नभ तक
मावस को ढलना होगा

करो कुठाराघात अमा पर
पानी है सिर-ऊपर तक

- डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
१५ अक्तूबर २०१६
   

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