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चकमक-चकमक-चकमक

   



 

रात शहर की आज निराली
स्वर्ग सरीखा जग है
देख, दमकता भाल गगन का
चकमक-चकमक-चकमक

ग़ज़ब छटा है इन दीपों की
ये अनार-फुलझरियाँ
बिजलीवाली रंग-बिरंगी
दम-दम करती लड़ियाँ
लगातार सुन धूम-धड़ाका
चहल-पहल लकदक है
तड़क-तड़ाके के आलम में
देख, चहकतीं परियाँ

लेकिन पगली तेरे आगे
फीकी लगतीं सारी
असर दिखा दे जो उबटन का
चकमक-चकमक-चकमक

भोली तिरिया, बता अमावस
किसके भाग नहीं है?
किस चौखट पर, किस पिछवाड़े
किस घर दाग नहीं है
आ पगली! आ मनसुख हो जा
दीख रहा वो जी ले
किसे फिकिर ना दुनिया भर की
कब खटराग नहीं है?

चल खुश हो जा, तनिक सँवर ले
ओ मेरी पनथैली
दिखा रूप निखरे बनठन का
चकमक-चकमक-चकमक

हर कुछ हो हर जन के हिस्से
ऐसा जाने कब हो
राशन-पानी, मरम-दवाई
जभी ज़रूरत, तब हो
कौंध रही जो चटख रोशनी
अपने भी घर होगी
रहें सलामत हाथ हमारे
और माँग में ढब हो

तब तक हम उल्लास भरा जग
आ देखें, खुश होलें
दिखता जगमग तो जन-जन का
चकमक-चकमक-चकमक

- सौरभ पाण्डेय
१५ अक्तूबर २०१६
   

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