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मिट्टी के दीप

   



 

गुमसुम से बैठ गये
मिट्टी के दीप
दीप-पर्व बिजली से
साँठ-गाँठ कर रहे।

सम्पत को याद आये
चाक वाले दिन
दौड़ ये विकास की
चुभो रही है पिन

वन्ध्या सी हो गयीं
ये मन की सीपियाँ
स्वाति बूँद स्वप्न हुई
दर्द ही उभर रहे।

सहसा चौंका दिया
अभावों ने आके
रात दिन बीत रहे
कर कर के फाके

हर घड़ी डराते हैं
भूख के पटाखे
कहने को ज़िंदा हैं
किन्तु नित्य मर रहे।

गूँगा परिवेश हुआ
गाँव हुआ बहरा
संस्कृति के द्वार पर
धनिकों का पहरा

वणिकों के संधि-पत्र
श्रमिक के अँगूठे
जीवन की नदिया में
प्यास लिये डर रहे।

- त्रिलोक सिंह ठकुरेला
१ नवंबर २०१५

   

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