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दीप...!

   



 

दीप मुझे तुम सा जलना है
बहुत कारवाँ मिले राह में
फिर भी एकाकी चलना है!

अंतर्मन की चाह अधूरी
नहीं तेल ना बाती पूरी
पाँव थके हैं दूर सवेरा
कैसी है यह भी मज़बूरी

कठिन डगर है रैन अँधेरी
क्या कहना है? क्या सुनना है?

साक्षी है ये तमस हमारा
हमने कोई समर न हारा
बनती मिटती रेख धुएँ की
दुःख का करती है बँटवारा

हर कीमत पर मुझे समय के
आँसू का हर कण चुनना है!

दर्प आँधियों का कुचलेगा
आने वाला कल बदलेगा
मिट्टी में यदि मिल जाये तो
एक नया अँकुर निकलेगा

शूल बिछे हो यदि मीलों तक
तब भी मुझको चुप रहना है!

- रंजना गुप्ता
१ नवंबर २०१५

   

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