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ज्योति-पर्व पर प्रण लेता हूँ
तम न कहीं पर, रहने दूँगा
माना अँधियारे की जय है
पर प्रातः का आना तय है
पूर्व विजय के मावस वाली
काली रातों का क्या भय है
नन्हा सा दीपक हूँ लेकिन
अश्रु न दृग से बहने दूँगा
तम न कहीं पर, रहने दूँगा
गहरा तमस प्रभावित जन-जन
कोलाहल में डूबा जीवन
मन दीपित कर अटल लक्ष्य मैं
रिक्त घटों में भरूँ अतुल धन
माटी की सूनी कुटिया को
दीपमाल के गहने दूँगा
तम न कहीं पर रहने दूँगा
प्रखर प्रकाश सुयश का मिलना
कंदीलों से अम्बर खिलना
दीपकवृक्ष सघन आँगन में
साथ हवा के लौ का हिलना
निष्प्रभ कर कलि की करतूतें
घुट-घुट अशुभ न सहने दूँगा
तम न कहीं पर रहने दूँगा
- भावना तिवारी
१ नवंबर २०१५ |