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जब
दीप जलें चहुँ ओर यहाँ, उजियार भरे सबके हिय में।
तम नाश करें मन हर्षित हो, हम बाति धरें हिय के
दिय में।
नयना रिसते मनु तेल सखी, उठती इक लौ पिय के हिय
में।
तन राख हुआ 'जल के' उसमें 'जल का' नहिं नाम निशाँ
हिय में।
खुशियाँ बिखरीं घर आँगन में सखियाँ सब दीपक देख
रहीं।
छवि देख पिया सखि दीपक में शरमाय रहीं छुप जाएँ
कहीं।
कर पूजन दीप जला कर के अब द्वार चलीं मुसकाय रहीं
सब खेलत संग मचा हुड़दंग लगे उनको कछु लाज नहीं।
दीपक-सा बन जा अब मानव, ज्योति जलाकर जीवन में नव
खूब रहा अँधियार यहाँ नित, ओजस का अधिकार हुआ अब
मैल हटा कर मानस का अब, स्वच्छ बना कर जीवन जी तब
हो मत आकुल-व्याकुल मूरख, जीवन है यह निश्चित है
कब
- पवन प्रताप सिंह 'पवन'
१ नवंबर २०१५ |