भोगवाद की चकाचौंध में
गुम है दीवाली
क्या होता वनवास काटना
जाना नहीं कभी
उजले-तन काले-धन्धों पर
हैं मदमस्त सभी
बात बात पर नौकर-चाकर
खाते हैं गाली
धन के रस के कुयें हैं जिनके
उनकी धन-तेरस
आखें देख फटी रह जातीं
वैभव के सर्कस
घडी-घडी 'वस्त्राभूषण-सेट'
बदले घरवाली
चित भी उनकी पट भी उनकी
सिक्के रहे उछाल
इस बँगले सेउस बँगले तक
फैला माया-जाल
कितनी ही कार्बाइन-पिस्टल
करतीं रखवाली
- शैलेन्द्र शर्मा
२० अक्तूबर २०१४ |