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आँक
दूँ ललाट पर
मैं चुम्बनों के दीप, आ
रात भर विभोर तू
दियालिया उजास दे
संयमी बना रहा ये मौन भी विचित्र है
शब्द-शब्द पी करे निनाद-ब्रह्म का वरण
कोंपलों में बद्ध क्यों सुगंध देह से उमग?
आ, सहज उघार दूँ
मैं विन्दु-विन्दु
आवरण
रात्रि की उठान, किन्तु स्वप्न शांत-थिर रहें
भंगिमा से रोम-रोम तोष का विभास दे
रात भर विभोर तू
दियालिया उजास दे
श्रम सधे, समर्थ हो प्रयास की लहर-लहर
अर्थ स्वेद-धार का गहन मगर विकर्म-सा
ज्योति-शृंखला बले शिरा-शिरा सिहर-सिहर
कम्पनों से व्यक्त हो प्रगाढ़ प्रेम
नर्म-सा
लालिमा प्रभात की वियोग की कथा रचे
किन्तु, "मावसी निशा" सुहाग का समास दे
रात भर विभोर तू
दियालिया उजास दे
- सौरभ पांडेय
२० अक्तूबर २०१४ |