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लरजता है, सहमता है, सभंलकर फिर भी जलता है
लगन की अगन से ही तो गगन का तम पिघलता है
चलन में बदमिजाजी है
हवाएँ विष वमन करती,
उजाले कैद के साझी
दिशाएँ तम सघन करती,
प्रलय की गोद में फिर भी किशन का रूप पलता है।
धरें एक दीप उस घर भी
जहाँ सोई हैं उम्मीदें,
जगें उस द्वार आशाएँ
जहॉं दहशत में हैं नींदे,
अंधेरे पथ पे दीपक का अमिट विश्वास चलता है।
तिमिर में घुट रही सॉंसें
जलाएँ दीप अंतर का,
अहम की जकड़ने खोलें
सजाएँ द्वार मंदिर का,
मनुज हो कर मनुजता की ऋचाओं को क्यों छलता है
- साधना बलवटे
२० अक्तूबर २०१४ |