है
सतत जलना
उजाला हो न जब तक
दीप।
राजपथ से उतरकर
पगडंडियों पर बढ़ चलें
आ कि महलों से निकल
गाँवों सिवानों में जलें
भूख को छक कर
निवाला हो न जब तक
दीप।
है सतत जलना
उजाला हो न जब तक
दीप।
नेह-बाती सा डलें भगवे
हरे के दरमियाँ
चल कि पाटें आदमीयत से मजहबी खाँइयाँ
इक बरन मस्जिद
शिवाला हो न जब तक
दीप
है सतत जलना
उजाला हो न जब तक
दीप।
गर नगर की रोशनी कच्चे घरों तक आयेगी
हो पहुँच में आम जन की तो बुलेट भी भायेगी
मुफलिसी के तन
दुशाला हो न जब तक
दीप।
है सतत जलना
उजाला हो न जब तक
दीप।
साध कर आखर सरल अभिव्यक्ति को तलवार दें
बिम्ब को नवता कहन में सादगी की धार दें
भाव मन का
कवि-निराला हो न जब तक
दीप।
- कृष्ण नन्दन मौर्य
२० अक्तूबर २०१४ |