अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

सतत जलना दीप

   



 

है सतत जलना
उजाला हो न जब तक
दीप।

राजपथ से उतरकर पगडंडियों पर बढ़ चलें
आ कि महलों से निकल गाँवों सिवानों में जलें
भूख को छक कर
निवाला हो न जब तक
दीप।
है सतत जलना
उजाला हो न जब तक
दीप।

नेह-बाती सा डलें भगवे हरे के दरमियाँ
चल कि पाटें आदमीयत से मजहबी खाँइयाँ
इक बरन मस्जिद
शिवाला हो न जब तक
दीप
है सतत जलना
उजाला हो न जब तक
दीप।

गर नगर की रोशनी कच्चे घरों तक आयेगी
हो पहुँच में आम जन की तो बुलेट भी भायेगी
मुफलिसी के तन
दुशाला हो न जब तक
दीप।
है सतत जलना
उजाला हो न जब तक
दीप।

साध कर आखर सरल अभिव्यक्ति को तलवार दें
बिम्ब को नवता कहन में सादगी की धार दें
भाव मन का
कवि-निराला हो न जब तक
दीप।

- कृष्ण नन्दन मौर्य
२० अक्तूबर २०१४

   

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter