हो
चुकी है रात आधी
घोर तम मावस पले
इस अमा में दीप कोई
प्रीत का अंतस जले
हर तरफ खुशियाँ बिछी हैं
द्वार तोरण से सजे
आतिशी होते धमाके
वाद्य मंगल धुन बजे
कौन देता ध्यान उनपर
भूख से मरते भले
बाल दे इक दीप कोई
रौशनी भी हो यहाँ
झोपड़ी को राह तकते
घिर चुका है कहकशाँ
लूटते सारी ख़ुशी वो
काट सकते जो गले
शोषणों का दौर है ये
मान बिकता है यहाँ
आदमी ही आदमी के
दाम गिनता है यहाँ
न्याय कब मिल पायेगा
वो हाथ क्यों कब तक मले
इक तरफ तो है दिवाली
रात काली इक तरफ
इक तरफ है स्वर्ण पूजा
श्रम उपासक इक तरफ
बेबसी का दौर कैसा
क्यों दलित पदतल दले
प्रीत की बारिश कभी
होगी नहीं इस द्वीप में
बूँद स्वाती की कभी
क्या आएगी इस सीप में
मोतियों की आस में हैं
कौन उन सबको छले
- हरिवल्लभ शर्मा
२० अक्तूबर २०१४ |