दीप की अवली चली है पाँव तम का लो हिलाने
आँसू आहें ताप हरने बुझते दीपों को जिलाने
सोचना मत तम कहीं भी हावी होकर रह सकेगा
झूठ है वो झूठ पर सच जो भी कहना कह सकेगा
कब रही देखो सदा वो रात काली हर अमा की
पूनमी चंदा से पूछो चाँदनी जिसने जमा की
ड्योढ़ी - ड्योढ़ी फिर रहे हैं
दिल से दिल वो तो मिलाने
दूर होगा सुन अंधेरा जाति भाषा धर्म का अब
जानना है कर्म देखो आदमी के मर्म का अब
प्रेम के रिश्ते बनेंगे प्रेम से गुंजित दिशाएँ
नफरतों के देश को ना सींच पाएंगी निशाएँ
चल पडी है नव हवाएँ
हक सभी का वो दिलाने
डोल जाएगा सिंहासन बैठ जिस पर आप हँसते
लेखनी नव गा रही है किन्तु उसको नाग डसते
है समय बदलाव का ये अब
सुरभि
ना लडखडाये
विश्व के इस मंच पर वो दीप बनकर जगमगाये
है अमय बस प्रेम का तो ये अमय सबको पिलाने
दीप की अवली चली है
पाँव तम का लो हिलाने
- गीता पंडित
२० अक्तूबर २०१४ |