दीये !
तुमने तो हमें
प्रकाश ही दिये
और बदले में हमने
तुम्हें क्या दिया -
उपेक्षा और तिरस्कार
परंपरा का त्याग
वह भी आखिर किसके लिए
चीन में बने
क्षण-भंगूरों के लिए
कम हुआ मिटटी का कटना
कटते गए हम जड़ों से
सामाजिक समरसता के
रुक गए पहिये
दीये
शतकों से सिमटकर
रह गये दर्ज़नों तक
शायद अगली बार
रह जाओ सिर्फ पांच तक
वह भी सिर्फ
पंच -देवों के लिए
दीये
कपड़े की बाती
माँ घी में सिंझाती
तब उसके आलोक से
भर उठते थे हिये
दीये
अब सादगी और पवित्रता
कहाँ है भाती
चेहरे पे मुस्कान
बनावटी चीजें ही ला पाती
ऐसे में तू भी आखिर
जीये तो
कैसे जीये
दीये
- विजय वर्मा
२० अक्तूबर २०१४ |