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बरसों पुरानी
कलई की खुशबू में डूबा मन
उतरने लगा है
उम्र की सीढ़ियाँ
जहाँ से देख रही हूँ मैं
बाँस में टंगे
उस खूबसूरत कंदील को
जिसे भरपूर उछाह से
टाँगा है पिता ने
मुँडेरों पर
हँस रहे हैं नन्हे नन्हें दीये
खील-बताशों की खुशबू से
भर गया है पूरा घर
देह को सिहराती
ठंढी हवाओं के बीच
फुलझड़ियाँ, अनार और चरखियों के संग
हँस रहीं हैं छत और गलियाँ
और उनकी हँसी में शामिल हैं
किलकारियाँ भरते
माटी के नन्हें नन्हें दीये
व्यस्त हैं माँ
पूजन की तैयारियों में
पिता मुस्करा रहे हैं धीरे धीरे
दीपावली जगमगा रही है
भीतर से बाहर तक।
- सविता मिश्रा
२० अक्तूबर २०१४ |