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दीप जलते हिये

   



 

कच्ची माटी के दीये
पावन, शुद्ध, पवित्र
तम विनाश हेतु
जलाते प्राण
धेनु घृत से
बाती सिंझाती माँ
पूजा निखरती
अर्चना का स्वर गाती
उजास फैलता
मन हुलसित होता
पञ्च देव प्रसन्न होते
दीप जलते सह्रदय हिये

आज दीप नही जलते
मन द्वार
जलती हैं लड़ियाँ
दीप क्षण भंगुर हुए
कट रही हैं परम्पराएँ
जलती हैं विदेशी धरा की
आर्टिफिशल जादूगिरी
अपनी मिटटी को भूल
जागते हैं विदेशी बल्ब
मंदिर, अहाते या गाँव के द्वार
फैलती प्लास्टिक सी मुस्कान

- मंजुल भटनागर
२० अक्तूबर २०१४

   

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