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अगणित दिये जले

   



 


गाँव गाँव में, गली गली में
अगणित दिये जले
मगर अँधेरा बचा हुआ है
अब भी दीप तले

हर सन्ध्या
सबके चौखट पर यद्यपि दिया जलाती
जगह स्नेह की केवल छल है बस बातों की बाती
घोंपा खंजर यहाँ उसी ने
जिसके लगे गले

जिसे खून से
हमने सींचा पाला देकर जीवन
बनकर साँप आज डसता है वही हमारा उपवन
प्रश्न यही है इस बबूल में
कैसे आम फले

आम आदमी
के सपनों का अजब हश्र होता है
न्याय कटघरे में आकर खुद सिसक सिसक रोता है
नैतिकता मुट्ठी में आकर
बार बार फिसले

– रवि शंकर मिश्र रवि
२८ अक्तूबर २०१३

   

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