दीप कहीं तुम बुझ न जाना !
छेददार माना कि द्याली
होती जाए प्रतिपल खाली
थी तो बहुत कपास खेत में
किंतु चुरा ले गए मवाली
रात अमावस की घिर आई
तुम तो अपना धर्म निभाना !
हवा चल रही है तूफानी
राह नहीं जानी-पहचानी
साथ-साथ चलने की कसमें
निकलीं सब की सब बेमानी
अब तो नियमित क्रिया बन गई
सूरज का असमय ढल जाना!
अब न दीप जलाने वाले
खाने लगे बचाने वाले
धरे हाथ पर हाथ मूक हैं
औरों को समझाने वाले
ऐसी विकट घड़ी में दीपक
बाती एक उधार जलाना !
-ओम प्रकाश तिवारी
२८ अक्तूबर २०१३ |