इतने सारे दीपक कहाँ समाएँगे
रोशनी की तरुणाई में कहाँ ठहरेंगे
कि बाहर हवा काफी तेज़ है
और रास्ता संकरा
या फिर मन के भीतर
जहाँ एक दीपक की लौ ही काफी है
फिर
तो फिर
इतने दीपक कहाँ और कैसे?
कितना मगन है
चाक पर उकड़ू बैठा हुआ कुम्हार
बस वही है
जो जानता है इस
अँधेरी दुनिया का उफनता हुआ मर्म
वह हर दीपक को
धूप में यही सोच कर सुखाने के लिए रखता है कि
मेरे सारे दीपक खप
जाएँगे
शहर की सारी मुंडेरों
आलों
नालियों
बालकनियों पर कतार दर कतार
क्यों न इस बार अपनी-अपनी
दीवारों पर ढेरों दीपक लगा कर
कुम्हार की आस
को और जरा और ऊँचा कर
उस बड़ी सी मुँडेर तक पहुँचा दे
जहाँ एक दीपक पूरी रात जलने का प्रण लिए
अकेला ही पालथी मार कर बैठा हुआ है
--विपिन चौधरी
१२ नवंबर २०१२ |