|
दस
रुपये की फुलझडी, पन्द्रह का रॉकेट
इतने में परिवार का, छ्गना भरता पेट ॥
बिना जली इक फुलझडी, कचरे में जब पाय
निर्धन बालक की तभी, दीवाली मन जाय ॥
डिब्बे पर शुभकामना, लिखा संग मुस्कान
नकली मावे से बने, बेच रहे मिष्ठान ॥
महँगाई में हो गया, महँगा बाती तेल,
दिया जलाना साथियोँ, नहीं रहा अब खेल ॥
फुलझडियाँ, लडियाँ भले, देती हमें प्रकाश
वायु प्रदूषण फैलता, धन भी होता नाश ॥
ट्रेन, बसों में भीड है, रख न सकेँ हम पाँव,
जैसे तैसे पर सभी, जाते अपने गाँव ॥
चाहे निर्धन लोग हों, या फिर हों धनवान,
दीवाली के पर्व पर, खाते हैँ मिष्ठान ॥
महँगाई से कर रही, श्रद्धा दो दो हाथ
हावी उस पर हो रही, लोगों का है साथ ||
चीज़ें हैं महँगी भले, पर सब में है जोश,
श्रद्धा के सम्मुख यहाँ, महँगाई बेहोश ||
शरद तैलंग
१२ नवंबर २०१२ |