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ये
कैसी दीवाली तेरी
ये कैसी उजियारी है?
जुगनू जैसी उम्मीदों पे
महँगाई की रात घिरी
और गरीबी के छालों पर
पकवानों की बात छिड़ी
मेवे, मिष्टी सोच न सकते
नून, तेल
दुश्वारी है।
मॉल, सेज की धूम मची है
हाल न पूछो खेती का
पिज्जा बर्गर क्या समझेगा
दर्द हमारी रोटी का
आँगन के शव पर खड़े हुए
ये कोठे, महल
अटारी हैं।
नाच रहे घर बाहर सारे
बाजारू झालर झुमके
पर माटी के दीप यहाँ
रहते हैं मोहाज़िर बनके
किसकी चालें किसकी साजिश
किसकी ये
हुश्यारी है।
--शंभु शरण मंडल
१२ नवंबर २०१२ |