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तुम एक बार जीत कर
लंका को,
संहार कर असुरों को
विजेता बन कर आये थे,
तब हमने खुशियों के दीप जलाए थे,
और तब से लेकर आज तक,
हम उसी परंपरा को निभा रहे हैं,
हर साल,
तुम्हारी वापसी के दिन को,
वैसे ही दीप जला कर मना रहे हैं।
हालांकि वह थी घनघोर अँधेरे की रात,
जब तुम लौट कर आये थे,
पर तुम्हारे वापस आने की ख़ुशी
में हम फूले नहीं समाये थे।
क्योंकि तुम अपने साथ लाये थे,
हमारे टूटे सपनो को जोड़ने का विश्वास,
हमारी दबी कुचली आशाओं को सच करने का एहसास,
और निराशाओं के अँधेरे में जगमगाने खुशियों की आस।
वही आस, वही एहसास, वही विश्वास,
जो तुम पर है आज भी,
हमारे दीपों में रौशनी बन कर जलता है,
जिसे देख कर अमावस की स्याह रात का
भी हृदय डरता है।
आज भी हम वैसे ही मनाते हैं दिवाली,
मनाते हैं खुशियाँ, सजाते हैं दीपों की लड़ियाँ .
आज भी अन्धकार से घिरा है
हमारा आकाश,
और हमें है आज भी यह विश्वास
तुम आओगे, ज़रूर आओगे,
फिर एक बार।
--संजीव निगम
१२ नवंबर २०१२ |