झिलमिलाते दीप देखो
लग रहे कितने सलोने
कार्तिक की प्रात भीगी
दूब जैसे ओस से
तैल मदिरा पी लहरते
हैं हुए मदहोश से
आज ये ही बन गए हैं
बाल टोली के खिलौने
दीप्ति रवि की हैं चुराए
दिये माटी-धूर के
देखते तूफान को भी
साहसी ये घूर के
पंक्ति-पंक्ति उजास बिखरी
दीखते नभ नखत बौने
रात है काली अमावस की
सुमेरु सी बनी
झोपड़ी के द्वार दीपक
लग रहे संजीवनी
प्रगति युग में भी ये थाती
आस्था की चले ढोने
-ओमप्रकाश तिवारी
१२ नवंबर २०१२ |