|
दीपिका बन जल रही हूँ
मौन प्रिय की वंदना हूँ ।
निशा की श्यामल लटों को
गूँथ कर किरणें सुनहली,
लिख रहीं नभ से धरा तक
सृष्टि की यह प्रीति पहली ,
वे सृजन के प्रणेता, मैं
प्रकृति की अभिव्यंजना हूँ ।
कल्पना सिंदूर भरती
मंजु सुधि की बाँसुरी से
कुछ अजाने स्वर सँवरते
मधुर मन की बाँसुरी से
मृदु स्वरों के मत्त साधक
नत नयन अभ्यर्थना हूँ
अगरु धूमिल गंध रंजित
भावना -मधु स्वप्न सिंचित
सुमन लेकर अंजली में
कामनाओं के अपरिमित
मद अलस कामायनी हूँ
मैं अकम्पित साधना हूँ ।
--डॉ. मधु प्रधान
१२ नवंबर २०१२ |