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लक्ष्मी माँ उनके घर जाना,
जिन्हें न सुलभ अन्न का दाना
पूरा पेट नहीं भर पाते
प्राय: चूल्हा नहीं जलाते
आँचल मैं नहीं दूध की झारी
नन्हा कैसे ले किलकारी
कबतक इनको इनकी माँएँ
परी कथाओं से बहलाएँ
ज्वार बाजरे की कुछ मोटी
सपने में भी दिखती रोटी
वहां किरण अपनी बरसना
लक्ष्मी माँ उनके घर जाना,
ना ना रूप धरे तू आती
उनपर वैभव है बर्षाती
श्वेत आवरण, करके धारण
जिनका है माँ भ्रष्ट आचरण
उनके भय से मुक्ति पाने
मैंने लिखे कई तराने
कोई पर्वत कोई राई
बड़ी विषमता की यह खाई
भूल गए हैं जो मुस्काना
लक्ष्मी माँ उनके घर जाना
हे महालक्ष्मी, हे किरणमलिका!
महंगाई की देख तालिका
हर वस्तु बाबा के मोल
उस पर भी ना पूरा तोल
अरबों के करते घोटाले
बहते हैं मदिरा के नाले
अपमिश्रण औ नकली माल
चाहे मावा या हो दाल
कड़ी धूप में है मजबूर
हे माँ भारत का मजदूर
बनिए का है सूद चुकाना
लक्ष्मी माँ उनके घर जाना
हे सागर की बेटी अबके
धन को ना तरसे ये तबके
सोच हुआ बाजारू मैया
डूब रही हर घर की नैया
मिला नहीं आय का धंदा
गर्दन में लटकाते फन्दा
दुःख के पर्वत चारों और
छाया अन्धकार घनघोर
चहें कुबेर का नहीं खज़ाना
लक्ष्मी माँ उनके घर जाना
--किशोर पारीक "किशोर"
१२ नवंबर २०१२ |