आँधियाँ गरजें
फटें बादल मगर फिर भी
दीप जलने दो !
गर्द में डूबा हुआ मौसम
भयावह धुँधली दिशाएँ हैं
भ्रम सिरजता झूठ है यह सब
सत्य रंगों की छटाएँ हैं
अटपटे ढँग हैं
तमिस्रा के अगर फिर भी
दीप जलने दो !
ग्रहण में घिरकर मिटी कब है
जुगनुओं की देह की पूनम
जीत का जयघोष करते हैं
हरसिंगारों के धवल परचम
राहु-केतु प्रपंच हैं
रहकर निडर फिर भी
दीप जलने दो !
मत भुलाओ देवताओं के
हो सदा ही से दुलारे तुम
चाहे जो अवतार ले ईश्वर
हो उसे ख़ुद से भी प्यारे तुम
दे झकोले युगनदी
उफनें भँवर फिर भी
दीप जलने दो !!
-- अश्विनी कुमार विष्णु
१२ नवंबर २०१२ |