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बदले बदले से लगते
हैं
उत्सव के मौसम।
आई शरद शक्ति पूजा की
जगह जगह चर्चा
पूजा-अर्चन, दीपमालिका
कितना ही खर्चा
किन्तु अहिल्या पाषाणी सी
क्रोध भरे गौतम।
सिर्फ जलाये गये
हर जगह कागज के पुतले
अब भी देव डरे सहमे हैं
रावण-राज चले
वन में राम, बद्ध है सीता
विवश संत संगम।
इस पिशाचनी महँगाई की
कब तक घात सहें
भूखी नंगी दीवाली की
किस से व्यथा कहें
पर्वत बनी समस्याऐें है
तिनके जैसे हम
त्रिलोक सिंह ठकुरेला
२४ अक्तूबर २०११ |