बिजली की बेलें जलाने की धुन में
डिबियों से सम्वाद करना ही भूले !
दो वक़्त रोटी की आस में भटकते हैं
दिन-रात खटते हैं फिर भी खटकते हैं
हम कैसे नागर हैं बस फूटी गागर हैं
प्यासों को गुड़धानी पानी से बचते हैं
सावन-सी पलकों के मेघ ही सुखा डाले
पथरीले दड़बे सजाने की धुन में
रिश्तों को आबाद रखना ही भूले !
अतिवादी शैली है उच्छृंखल जीवन है
हवसों को हरियाता पाखंडी चिंतन है
उत्सव के खातों में शुभ-लाभ गिनते हैं
कोरा आडम्बर है लंकाधिप हनते हैं
स्नेह-भरे भावों के दीप ही बुझा डाले
कंचन की जगमग जुटाने की धुन में
तिमिरों का उन्माद हरना ही भूले !
--अश्विनी कुमार विष्णु
२४ अक्तूबर २०११ |