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दीप धरो
वर्ष २०१० का दीपावली
संकलन |
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आग और उजाला
मेरी एक
मुट्ठी में
भरी है आग
और दूजी में उजाला
दोनो ही सघन हैं
दोनो ही अग्निधन हैं
पर देश मेरे
मैं तुम्हें क्या दूँ
कि बरसे
प्राण तक आलोक
दग्ध हो जाए
सभी की पीर, सबका शोक
सिर्फ बरसे
प्राण तक आलोक
क्या दूँ तुम्हें ऐसा?
एक मुट्ठी में भरी
जो आग है
उस आग में न राग, न बैराग
न अनुराग है
उस आग में
केवल छिपी है राख
शेष केवल
जलन के दाग
आग है यह
राष्ट्र में महाराष्ट्र की
देश तुझको बाँटते
धृतराष्ट्र की
जाति भाषा धर्म भूषा वेश की
बढ़ रहे हिंसा जनित परिवेश की
सुजनता औ'
मनुजता के क्षरण की
स्वार्थ में सब बाँटते
सिर्फ सत्ता के वरण की
इस आग में तुमको
भला कैसे जला दूँ
देश मेरे
और मेरी दूसरी
मुट्ठी में भरा है सिर्फ उजियाला-
चाँद सूरज ने जिसे खुद
गोद में पाला
यह उजाला ही हमें अब
चाँद की देहरी छुआने
ले चला है
इस उजाले की वजह से
तमस को हमने गलाया
इस उजाले के लिये ही
देश ने जीवन जलाया
यह उजला ही तुम्हें
अब सौंपता हूँ
सौंपता हूँ
मैं उजाले के बहाने
ऊष्मा भी
आग इसमें भी भरी है
पर जोड़ती है आग यह
उजियार से
दूर है यह हर जलन से
राख से या दाग से
जिजीविषा से यह लबालब
आग है
जिसमें उजाला ऊष्मिता
अनुराग है
लो सँभालो--
बस, यही तो आग है !
-- कमल बुधकर
१ नवंबर २०१० |
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