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आ संक्रांति
 
दूर कर दे भ्रांति आ संक्राति! हम आव्हान करते।
तले दीपक के अँधेरा हो भले
हम किरण वरते।

रात में तम हो नहीं तो
किस तरह आये सवेरा?
आस पंछी ने उषा का
थाम कर, कर नित्य टेरा।

प्रयासों की हुलासों से कर रहा कुड़माई मौसम-
नाचता दिनकर दुपहरी संग थककर छिपा कोहरा।
संक्रमण से जूझ लायें शांति
जन अनुमान करते।

घाट-तट पर नाव हो या-
नहीं, लेकिन धार तो हो।
शीश पर हो छाँव कंधों-
पर टिका कुछ भार तो हो।

इशारों से पुकारों से टेर सँकुचे ऋतु विकल हो-
उमंगों की पतंगें उड़ कर सकें आनंद दोहरा।
लोहड़ी, पोंगल, बिहू जन-क्रांति
का जय-गान करते।

ओट से ही वोट मारें चोट
बाहर खोट कर दें।
देश का खाता न रीते
तिजोरी में नोट भर दें।

पसीने के नगीने से हिंद-हिंदी जगजयी हो-
विधाता भी जन्म ले खुशियाँ लगाती रहें फेरा।
आम जन के काम आकर
सेठ-नेता काश तरते।

- संजीव वर्मा सलिल
१५ जनवरी २०१७

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