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चहुँ ओर पतंगें |
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उड़तीं हैं चहुँ ओर पतंगें
लगतीं हैं चितचोर पतंगें
सबको ख़ुश करने की ख़ातिर
नाचें बन के मोर पतंगें
उड़े गगन में मगर पतंगों-सा है कौन अभागा
उतनी ही परवाज़ मिली जितना चरखे में धागा
अम्बर का विस्तार नयन में स्वप्न सँजोता है
दूर क्षितिज तक उड़ पाने की ख़्वाहिश बोता है
सपने तो सपने हैं अपने कभी नहीं होते
बन्धन चाहे जैसा भी हो बन्धन होता है
ठुमक रहीं कठपुतली बनकर
घूम रही हैं तकली बनकर
क़िस्मत की थापों पर बेबस
बजती आयीं ढपली बनकर
जगीं युगों की सुबहें लेकिन इनका भाग्य न जागा
उतनी ही परवाज़ मिली जितना चरखे में धागा
पहले पहल पिता के हाथों में जी भर खेली
उम्र चढ़ी प्रिय के इंगन पर डोली अलबेली
रंग ढला जर्जर तन, कन्ने जब कमज़ोर हुए
चरख़ा-डोर हाथ में अगली पीढ़ी ने ले ली
यही निरन्तर क्रम जारी है
यहाँ तरक़्क़ी भी हारी है
औरों के हाथों में रहना
ही पतंग की लाचारी है
नुची लुटेरों से जिसने चरखे का बन्धन त्यागा
उड़ें गगन में मगर पतंगों सा है कौन अभागा
देख थिरकती देह पतंगों की अम्बरतल पर
ताली दे हँसती जो दुनियाँ ख़ुश होती जमकर
वही लगाकर दाँव, फँसाकर पेच, काट देती
ऊपर उठती हुयी पतंगें क्यों लगतीं नश्तर
क्या उनको अधिकार नहीं है
क्या उनका संसार नहीं है
ख़ुद से ऊपर उनका होना
बोलो क्यों स्वीकार नहीं है
कब तक शबनम पर जाएगा अहम का शोला दागा
उड़ें गगन में मगर पतंगों सा है कौन अभागा
- डा० राजीव राज
१५ जनवरी २०१७ |
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