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प्राण की जिद
 
प्राण की जिद
हो कहाँ पायी सफल संक्रांति तक
भीष्म के आदर्श की तलवार फिर तानी गयी

बंधनों में
घुट रही जो उड़ गयी काटी गयी वो
फिर झपट कर छीन कर लूटी गयी बाँटी गयी वो
डोर की हद
भी उमंगों से कहाँ मानी गयी

जब समय का
चक्र सुस्ताने लगा होकर शिथिल मन
राह के दुश्कर पलों से हार थक बैठा श्रमित तन
तब पतंगों
की दिखाई राह पहचानी गयी

गूँजता है
शोर अंतर का कहीं अनजान स्वर में
भोर ने आवाज देकर है जगाया राग उर में
मन कलंकित
शुभ्र रखने की ललक ठानी गयी

- नीरज द्विवेदी
१५ जनवरी २०१७

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