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पतंग और टुक्कल*
(छः कविताएँ)
 
१.
ये आसमान में
पतंगें हैं
या हमारी आकांक्षाएँ उडती हुईं
सूर्य को दिए हुए अर्ध्य
रंग बिरंगे फूलों के
सपनों की डोर आज
हाथ आ गयी है हमारे।

२.
रात के आसमान में टुक्कल
जैसे आकाशगंगा की आभा के अणु
इस दिन और रात की संधि वेला में
जोड़ रहे हैं
रिश्ते
पुरखों से
थोड़े से हम भी चमक उठते हैं
इनकी लौ की उड़ान में
इन्हें ऊँचाइयों की नदी में सराते हुए।

३.
शब्दों के कोलाहल से दूर
पक्षियों के पंखों की
मौन फड़फड़ाहट
के आकाश में
चल पड़ी है
धरती के सारे मोह छोड़
किसी पेड़ पर टंगी रहेगी
कुछ दिनों
वहाँ पंखों का एक घोंसला है।

४.
वहाँ भी धोखे हैं
पेंच हैं
मुक्ति के इस रास्ते में
इन ऊँचाइयों पर
तुम्हारा होना
हो सकता है
किसी के पंखों की आखिरी उड़ान
लूट ली जायेंगी किसी क्षण
ये ऊँचाइयाँ भी
झाड़ियाँ पकड़े
अपने सपनों को ढूँढने निकले
कुछ आवारा लड़कों की जिद से
टुकड़े टुकड़े धागा
टुकड़े टुकड़े पंख

५.
रख दी है
हवाओं ने मेरे मन में
वही ललक
जो
मेरे तन की लकड़ी और कागज़ ने जी थी
उस पेड़ में मरते दम तक
पृथ्वी की अँधेरी कोख से निकल
बन जाने को हिस्सा
आसमान का
मुझे उस चिड़िया से बात करनी है
जिसके बच्चों ने कभी मेरी शाखों से
सीखा था उड़ान भरना।

६.
अपनी आत्मा में आग रखकर
निकला हूँ मैं
प्रकाश वर्षों की यात्रा पर
एक छोटा सा टुक्कल हूँ
मेरी भी जिद है
इस रात के फलक पर
रोशनी हो जाना।

- परमेश्वर फुंकवाल
१५ जनवरी २०१७

* टुक्कल- गर्म हवा का गुब्बारा, जिसे संध्या समय और रात्रि में आकाश में छोड़ा जाता है।

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