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सूरज रथ मुड़ने लगा
 
सूरज रथ मुड़ने लगा, नभ में उत्तर ओर
सोना-सोना हो गई, धूप नहाई भोर

उषा किरण ने ओढ़ ली, चुनरी सोनल रंग
पर्वत-पर्वत पग धरे, चलते संग अनंग

चौराहे पे चौकड़ी, जलता बीच अलाव
अंगीठी कोने पड़ी, मोल मिला ना भाव

सूरज दर्शन की घड़ी, जन-जन करता ध्यान
दादी ने भी कर लिया, हर-हर गंगे स्नान

छत चौबारे धूम सी, उडती देख पतंग
दोपहरी की नींद अब, शोर-शोर में भंग

दिन-दिन खिंचते जा रहे, लम्बे ताड़ समान
रातों की होने लगी, नाटी सी पहचान

नैनन को अब रुच गए, गुड़, तिल, खिचड़ी थाल
जिह्वा हँस-हँस पूछती, अखरोटों का हाल

पनघट पर सजने लगे, त्योहारों के छंद
मेले-ठेले, हाट में, बिकते बाजूबंद

खेतों में फसलें खड़ी, कृषकों में उन्माद
मेड़-मेड़ का आपसी, छूटा वाद-विवाद

बदले-बदले से लगे, शीतल ऋतु के ढंग
ओढ़ दुशाला चल पड़ी, पोष मास के संग

- शशि पाधा
१५ जनवरी २०१७

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