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संस्कृति देती गर्व
 
पोंगल, खिचड़ी, बिहू सब, मिलकर करते क्रांति।
भिन्न-भिन्न हैं रूप पर, एक मकर संक्रांति।।

चेतनता में वृद्धि हो, दिव्य-दृष्टि दे खोल।
माघी की महिमा कहें, ज्योतिष और खगोल।।

स्नान, ध्यान औ' दान की, संस्कृति देती गर्व।
शुचिता, सौम्य, मिठास का, खिचड़ी अद्भुत पर्व।।

महाकाश को चूमती, भावों भरी पतंग।
तिल-गुड़ के लड्डू मिले, जब खिचड़ी के संग।।

गंगा के तट यूँ लगे, जैसे माँ की गोद।
जप-तप, तर्पण, दान कर, मिले अलौकिक मोद।।

देव दिवाकर दे रहे, जन-जन को यह आस।
पल-पल जीवन में बसे, मंगल, मोद, मिठास।।

सरिता तट के रंग से, रोमांचित आकाश।
दूर वहाँ से सोचता, मैं भी होता काश।।

दिन प्रतिदिन होंगे बड़े, छोटी होंगी रात।
खिचड़ी तम को चीरती, बतलाती यह बात।।

मेले-सा आनंद हो, दु:ख न करे प्रवेश।
जीवन-शुभ की कामना, माघी का संदेश।।

ढोल-नगाड़े बाजते, प्रमुदित दिखे किसान।
मकर राशि में आ गये, अब दिनकर भगवान।।

- डॉ. शैलेश गुप्त 'वीर' 
१५ जनवरी २०१७

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