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            संक्रान्ति का शुभ पर्व

 
आ गया संक्राति का शुभ पर्व पावन
फिर धरा आलोक से
भरने लगी है

सूर्य ने वल्गा संभाली रश्मियों की
अश्व रथ के फिर लगे हैं गति पकड़ने
झूम कर गाती खुशी के गीत फसलें
बालियों के पहन कर अनमोल गहने
फिर दिशा ने धुंध के घूँघट उतारे
रंग उषा क्षितिज पर
मलने लगी है

घोल जाती ताजगी वातावरण में
भोर होते पक्षियों की चहचहाहट
आहटें मधुमास की देने लगी हैं
इन हवाओ की खनकती गुनगुनाहट
चिट्ठियाँ आने लगी फिर मौसमों की
खुशबुएँ-सी हर तरफ
झरने लगी हैं

उत्सवी मेले लगे जुड़ने तटों पर
रंग दिखलाने लगी हैं आस्थाएँ
बाँट कर तिल गुड़ चलो हम भी निभाएँ
इस अनूठे पर्व की पावन प्रथाएँ
फिर उमंगों ने गगन तक डोर खींची
पतंगें उल्लास की
उड़ने लगी हैं

- मधु शुक्ला
जनवरी २०२४

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