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            मौसम ने फिर

 
मौसम ने फिर करवट ली है
सूरज देरी से ढलता है

किरणों में फिर चमक बढ़ी है
तितली घर को छोड़ कढ़ी है
त्याग उदासी फूल खिल रहे
पत्तों से भी ओस झरी है

खिली-अधखिली पंखुड़ियों में
एक नया सपना पलता हैं

आसमान में लगा है मेला
जैसे हो रंगों का रेला
इक दूजे के प्रतिद्वंदी सब
कैसा है विचित्र यह खेला

कट जाती है डोर अचानक
हतप्रभ मन बस कर मलता है

परिवर्तन में भी इक लय है
कुछ अबूझ है पर अक्षय है
प्रश्न पींजरा /प्राण पखेरू
सब का उत्तर मात्र समय है

क्यों अलाव सा जलने लगता
और कभी हिम सा गलता है

- मधु प्रधान
जनवरी २०२४

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