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          मकर संक्रान्ति

 
शीत से काँपती सहमी दीवारों पर
धूप के नन्हे नन्हे टुकड़े
चितकबरे-से
जैसे खेलते लुकाछिपी का खेल
कुछ शरारती बच्चे
झर रही है नीम की पत्तियाँ
सर सर मर मर‌...
आ गई संक्रान्ति।

हवाओं में घुल रही शीतलता
तिल गुड की मिठास लिए
महक रहा मौसम
दूर कहीं बजते हैं मांदर के मधुर बोल
बदलते मौसम के गीत गाती धरती
करती है स्वागत-नये सूरज का
और भावनाओं का तपता सूरज
उतर रहा धरती के हरित अंचल पर
धीरे... धीरे... धीरे...!

पिघलती-बिखरती धूप के मृगछौने
बतिया रहे हैं- जहाँ तहाँ
और थरथराती शीत गुम हो रही है
धरती कुछ और सँवरती
गुनगुनाती सी... तप‌ उठती है
युगों से वहीं खड़ी... प्रिय सूरज के
स्वागत में
युगों से- युगों तक?

- पद्मा मिश्रा
१ जनवरी २०२४

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