बारिश
गढती रहती थी
मेरे पांवों पर रेत का
एक घरौंदा
और तुम आ जाती थी
अपने हाथों की थपक से
उसे अक्षुण्ण बनाने को.
तुम सिखाती थीं
मुझे कागज की नाव बनाना
और फिर मेरी नाव
घर के पास बहती
बरसाती नदी में
हमेशा आगे निकल जाती थी
तुम्हारी नाव से
और मेरी विजयी मुस्कान में
शामिल हो जाती थी
तुम्हारे अंतर की खुशियाँ.
मेरे गालों पर तुम्हारी चपत
जो बदल गयी थी पीठ पर हल्की सी धौल में
और फिर सिर पर रखे हाथ में
अब जैसे विलीन हो गयी है
अनंत में
पर उसकी ऊष्मा से
नेह का बीज फिर
रेत की कोख से निकल आता है
सावन की इस पूर्णचन्द्री रात में
जीवन को हरितिमा देने को
अतीत की पुस्तकों में रखी
चिट्ठियों से अब भी
झांकता है तुम्हारा चेहरा
और कलाई में बांध जाता है
वो अदृश्य धागा
जिसे महसूस कर
मैं तैयार हो जाता हूँ
जीवन की सारी विषमताओं से
दो दो हाथ करने को.
-परमेश्वर फुंकवाल
६ अगस्त २०१२ |