नेह बँधे दो
कच्चे धागे
सावन ने फिर याद दिलाया
लम्हा लम्हा जीते जिसको
वो बचपन फिर लौट न पाया
गुल्ली डंडा छुपन छुपाई
गुड़िया गुड्डा कंचा गोली
भरी दुपहरी दौड़ें छत पर
और धूप की आँख मिचौली
खेल खिलौने धमा चौकड़ी
लेकिन कुछ भी हाथ न आया
काका जी की दही जलेबी
मिट्टी की हाँडी का मठ्ठा
सुबह सवेरे से जग जाते
गली मुहल्ले जमता अड्डा
वो सैलानी दिन अपने थे
वो पल उसके बाद न आया
शहर कभी क्या हुआ किसी का?
दम घुटता है इस बस्ती में
गाँवों की पगडण्डी वाला
कटता था रस्ता मस्ती में
तुम मेरे हमजोली भैया
रक्षा
बंधन फिर है आया
- रंजना गुप्ता
१५ अगस्त २०१६ |