राम तुम्हारी चर्चा

 
राम तुम्हारी चर्चा अमृत जैसी लगती है
आदर्शों की एक कहानी
मन में जगती है

राजमहल का सुख हो या वन की कठिनाई
तुमने रघुकुल की
भारत की रीति निभाई
ऐसे ही जननायक की
तस्वीरें उगती हैं

शबरी का जूठा फल निष्फल नहीं गया है
भटकावों को पुनः
रास्ता सही मिला है
समता की चिड़िया फिर आँगन
दाना चुगती है

दानवता का दर्प हमेशा खण्डित होता है
पापी बलशाली हो
फिर भी दण्डित होता है
यह निश्चित है हर लंका
इक रोज़ सुलगती है

रामदुलारे रामभरोसे जब भी मिलते हैं
राम राम कर आपस में
अभिवादन करते हैं
राम कथा अब भी भारत का
तन–मन रँगती है

मात–पिता हों, गुरु हों, पत्नी हो या भाई
संबंधों की मर्यादा
किस तरह निभाई
याद तुम्हारी मन के हर
संशय को ठगती है

– रविशंकर मिश्र “रवि”
२२ अप्रैल २०१३

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