राम होना

 
समय की देह से परे होना है
राम होना
तब बिरला ही कोई होगा
इस चक्रव्यूह से बाहर

सच को छू लेना
सरयू की तह को नापना है
और पार जाना
मिलना है अंतरात्मा
में छुपे केवट से
जो धो डालेगा वो सारा मैल
जिससे डूब सकती है नाव
ऐसे में कौन स्वीकारेगा
मिट्टी में सने हैं उसके पाँव

किसी रात के दुरूह में
फूस की झोपडी में
एक हँसी हँसने
और एक एक पल जी लेने को
हम यदि वनवास कहेंगे
तो हर शहर के पास कितने वनवास होंगे तकरीबन?

जीवन जो बेर हमें चख चख कर बाँटता रहा
वो खाकर
क्या आ पायेगा हमारी रगों में भी
इस युद्ध में
समय सागर के पार जाने के पुल
बनाने का साहस

क्या हम लौट पाएँगे
काल के चक्रवात से लड़कर
अंतर्मन के समुद्र लाँघ
स्वर्ण नगरी से
वापस अपनी जड़ों को

और क्या राम लौटेंगे फिर
समय की
बंजर और निष्प्राण देह में आत्मा बनकर

- परमेश्वर फुँकवाल
२२ अप्रैल २०१३

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