|
मैंने सीखी तो थी साधो आखेट कला |
|
|
मैंने सीखी तो थी साधो!
आखेट-कला
पर ज़हर-बुझे बाणों का था
अभ्यास नहीं
मैं स्वर्णमृगों के पीछे भी
युग-भर दौड़ा
जो तेरा कहा गया, वह
मेरा भी मन था
आज्ञाएँ तो केवल
निमित्त-भर थीं साधो!
वह मेरा अपना
चुना हुआ निर्वासन था
मैंने व्यय की शिक्षा-दीक्षा
सब युद्ध-कला
चाहे इसको आँके कोई
इतिहास नहीं
नख ही बस बड़े नहीं थे
सूर्पणखाओं के
मोहन-मारण क्षमता भी
उनकी बढ़ी-चढ़ी
हर उच्चाटन की काट
न उनको आती थी
यह छल-बल विद्या भी
गुरुकुल में कहाँ पढ़ी
मैं दायित्वों के डगर-मगर
में गया छला
मेरे खाते में लिखा
कहीं
संन्यास नहीं
मैं शांत-शुद्ध चित से सागर-तट पर बैठा
मैंने उसको, तो सागर ने
मुझको परखा
था मुझे ज्ञात, वह युक्ति-नीति का था आदी
मेरी दृढ़ता से सागर का
शीशा दरका
तूने ओ मैथिलि! जाने क्या
कितना भोगा
मैंने भी जीवन में तोड़ा
सुख-ग्रास नहीं
ठोकर पर रखता था राजसी
सुखों को भी
आदतें राजसी थीं पर
लड़ने-मरने की
बीता जीवन साधारण
जन की संगति में
आदत थी राजमुकुट
में
हीरे जड़ने की
अंतर्द्वंद्वों की सरयूजी
में उतर चला
उतरा अथाह जल में, है
तट की आस नहीं
- पंकज परिमल
१ अप्रैल २०२० |
|
|
|