संकल्प उठाना होगा

 
  राम! तुम्हें इस धरा धाम में
फिर से आना होगा
हर हारे मन में आशा का
दीप जलाना होगा

फिरता है विष लिये नाभि में
राक्षस एक कोरोना
जिसके आगे विवश मनुज
हो गया बहुत ही बौना
नया शत्रु है और शत्रु की
नयी सभी हैं चालें
बिना ढाल के आखिर कैसे
उसके वार सँभालें

छिड़ा हुआ संग्राम
तुम्हें फिर चाप चढ़ाना होगा

गहन सोच के अंधकूप में
डूबी हुई दिशायें
अफवाहों की नयी कतरने
उड़ती लिये हवायें
रुका -रुका सा वक्त यहाँ
ठहरा -ठहरा मौसम है
पाल दिये शंकाओं ने भी
मन में कई वहम हैं

भटके मन को फिर सच्चा
सन्मार्ग दिखाना होगा

शस्त्र चला कर काट रहे हम
देह हवा-पानी की
चुका रहे हैं शायद कीमत
अपनी मनमानी की।
कठिन दौर से गुजर रहा है
आज मनुज का जीवन
तप्त रेत सा शुष्क हो गया
है मानवता का मन

सूखे मरुथल में करुणा का
स्रोत बहाना होगा

धरा कि जिसके कण-कण में है
नाम तुम्हारा बसता
नित्य काव्य के नये सुरों में
चरित तुम्हारा सजता
यों तो नित आघात आँधियों-
के हर और पड़े हैं
मगर आस्थाओं की अब तक
सूखी नहीं जड़े हैं

इन विश्वासों की रक्षा का
संकल्प उठाना होगा।

- मधु शुक्ला
१ अप्रैल २०२०

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter