आओ फिर रघुनंदन राम

 
दिव्य देह धर इसी धरा पर
आओ फिर रघुनंदन राम
पूर्ण करो आशाएँ सबकी
विश्व बने सुन्दर सुखधाम

रामायण से रामचरित तक
केवल एक राम गुणगान
पर कलियुग की ऐसी पीड़ा
समय माँगता पुन:प्रमाण
बसा हृदय जो सबके दानव
करना उसका काम तमाम

शोषित पीड़ित आतंकित हैं
आज राज की सभी प्रजाएँ
नैतिकता अब शेष नहीं है
टूट रही अब मर्यादाएँ
सुख की क्या हम करें कल्पना
घर घर मचा हुआ कुहराम

सत्य आज है बना अपाहिज
और झूठ का बजता डंका
भ्रमित चकित से लोग देखते
उनकी है सोने की लंका
लूट-पाट की चली संस्कृति
प्रजातंत्र का लेकर नाम

जिनके स्मरणमात्र से कटते
जीवन के सारे अभिशाप
हे शक्तिपुंज! हे मनुजश्रेष्ठ!
आकर हरो सभी के ताप
वसुधा के कण-कण का प्रतिपल
हो जीवन सुखमय निष्काम

- श्रीधर आचार्य "शील"  
१ अप्रैल २०१९२२ अप्रैल २०१३

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