उतर गया सरयू में

 
उतर गया सरयू में
बहुत-बहुत गहरे

राजपाट टेरते रहे
घाट मेरी बाट बड़ी देर हेरते रहे
सब कुछ अनसुन हुआ
कान हुए बहरे

देश-देश फैलीं
कीर्ति की कथाएँ
ग्राम्य क्या, नागर क्या
सबकी ही आँखों के सामने रहीं कब से
ये यशध्वजाएँ

नागरिक ठगे-से हैं
राजा के अंतस का भी अगर
चैन गया चोरी तो
काहे के द्वारपाल,
काहे के पहरे

मेरे ही बाण हैं
अमोघ लोक-विश्रुत
लक्ष्य से भटककर फिर
मेरे ही वक्ष से आ लगे
चुप-चुप से देखते रहे चरक-सुश्रुत

भोग के व्यजन ढुरते
स्वप्न-पुष्प शुष्क हवाओं के
छुए झुरते
क्या हुए, पढ़े जो थे
प्रीत के ककहरे

- पंकज परिमल 
१ अप्रैल २०१९२२ अप्रैल २०१३

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